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विवेक की तलाश में भारतीय युवा

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12 अप्रैल के दैनिक जागरण में श्री जगमोहन सिंह राजपूत जी का लेख “त्रासदी से घिरी ताकत ” ने एक ऐसे छुपे राजनैतिक एजेंडे की तस्वीर पेश की है, जिस के प्रभाव से युवा भारत के 65 % युवाओं में ऐसा चरित्रक दोष जन्म ले लेगा, जो भविष्य में शायद एक त्रासदी का रूप ले ले।
श्री जगमोहन जी ने उत्तरप्रदेश और बिहार में 5 लाख अध्यापकों के खाली पदों का जिक्र किया, बिहार के वैशाली में टी वी पर दिखाई गई, होती नक़ल की वीडिओ का जिक्र किया, जिसमें पुलिसः की भूमिका का विशेष स्वरुप दिखा। पश्चिम उत्तरप्रदेश में हाईस्कूल की परीक्छा में 10,000 /- की मांग पूरी न कर पाने पर, एक छात्र की आत्महत्या का जिक्र और पी सी एस परिक्छा में प्रश्न पत्र का लीक हो जाना आदि मोटे- मोटे उदहारण है, इससे ही यह अंदाजा लग जाता है, की वास्तविक स्थित कितनी गंभीर होगी। इन सब को संरक्छण, शिक्छा विभाग के अधिकारी, उनके राजनैतिक आका एवं शिक्छा माफिया अपने लाभांश के लिए देते है। पंजाब के युवाओं को “नशे ” के लत की जिम्मेदारी भी वहां के प्रशासन एवं राजनैतिक सांठ – गांठ का नतीजा माना है।
उप्पर जिन भी घटनाक्रम का जिक्र है, वे अपवाद मात्र नहीं, अपितु नक़ल की लहलहाती खेती से लिए गए मात्र कुछ नमूने है। इस पद्धति का परिणाम यह हो रहा है, की शिच्छ की गुण्डविकता पर चर्चा का तो कोई अर्थ ही शेष नहीं रह जाता। अब प्रश्न उठता है, इस नक़ल संस्कृति से उपजी नशल के सरकारी नौकरी में समायोजन की। सरकार ने नौकरी में इन के समायोजन की एक कुशल प्रक्रिया बना ली, अन्यथा विद्यार्थी इस नक़ल संस्कृति का बहिष्कार कर देते। परिणाम स्वरुप सरकारी नौकरियों में मुख्य रूप से शिक्छ्को की भर्ती का आधार “मेरिट ” बना दिया गया। नक़ल के माध्यम से अच्छी मेरिट प्राप्त कर साधारण छात्र भी शिक्चकों के पदों पर सरलता से नियुक्ति पा जाते है। इस प्रकार नक़ल संस्कृति की प्रक्रिया पूर्णता को प्राप्त कर लेती है,और इस प्रकार नक़ल संस्कृति का भविष्य पूरी तरह सुरक्छित हो जाता है। इस परिस्थित में बहुसंख्यक अकुशल शिक्छको के हाथ में भारत का भविष्य सौंप दिया जाता है।
पंजाब के युवाओं की सदा से ही गौरवशाली गाथा रही है। किन्तु नशे ने आज पंजाब के युवाओं को ही नहीं, अपितु लगभग हर आयु श्रेणी के जन को अपना दास बना लिया है, परिणामस्वरूप पंजाब जीर्ण – शीर्ण प्रान्त होने की दिशा में लगातार बढ़ता जा रहा है। इसी प्रकार नक़ल संस्कृति भी युवाओं के लिए एक नशे के समान है। एक बार इस की लत समाज को लग गयी, तो इस का उपचार सरल नहीं होगा। मुझे लगता है शायद इन्हीँ परिस्थितियों में विश्व में तालिबानी संस्कृति का जन्म हुआ होगा।
हमारी लोकतान्त्रिक पद्धत्ति में “वोट बैंक ” की राजनीति ही इस प्रकार के नशे का ईजाद करने को विवश है। जनता को यदि किसी भी प्रकार की नशे की लत लग गयी तो समझ लें की जनता की नकेल राजनीतिकों के हाथ आ गयी। आज हम संसद नहीं चलने देते भूमि अधिग्रहण बिल को ले कर। तमाम परस्पर विरोधी विचारो के लोग सारे विरोध भुला कर एक जुट हो आन्दोलन कर रहे है। क्यों ? जनता को इंसाफ दिलाने के लिए ? तो फिर नक़ल के समाचार को सुन कर, देख कर, कियों कोई आंदोलन नहीं उठ रहा ? जिन विद्यार्थीयों ने धना आभाव में परिक्छा में शामिल न हो पाने के कारण आत्महत्ये की उनके लिए कोई आंदोलन क्यों नहीं ? पंजाब में नशा खोरी के खिलाफ कोई आंदोलन क्यों नहीं ? इन सभी कारणों में राजनैतिक आकाओं के संरक्छन के विरूद्ध कोई आंदोलन क्यों नहीं ?
आश्चर्य है, की देश के भाग्यविधाता इस सच्चाई से अनिभिग्य है। क्या जगमोहन जी का लेख इन लोगों तक नहीं पहुँच पाता, और यदि पहुँचता है, तो जगमोहन जी के लेखो से उठे तमाम प्रश्नों के उत्तर उन्न्हे सार्वजनिक करने चाहिए। अन्यथा ये क्यों न मान लिया जाय की देश के भाग्य विधाता निहित स्वार्थ वश देश के भविष्य को एक अंधरी सुरँग को सौप रहे है।स्वेम तो वोट बैंक की राजनीत से स्वेम के लिए सत्ता प्राप्त कर ली, बदले में देश को प्रश्नों के जंगल दे दिया, जिसमे जनसामान्य उलझा रहे।

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