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गुजराती ढोकला और चीन

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17 सितम्बर 2014 को, चीन के राष्ट्रपति एवं उनकी पत्नी के भारत आगमन पर, भब्य स्वागत का आयोजन, नरेंद्र मोदी जी द्वारा, अहमदाबाद में किया गया। आगुन्तकों को भारत ने सर आँखों पर बैठाया, और भारत की वह तस्वीर शाकाहारी गुजराती भोजन के साथ दिखाई, जिस के लिए भारत विश्व भर में जाना जाता है। दिल्ली में राजनैको के स्वागत के पारम्परिक स्थल से दीगर, गुजरात में भी बहुत कुछ ऐसा है, जहाँ अतिथि का भब्य स्वागत हो सकता है, इस का ही उदाहरण था, 17 सितम्बर का कार्यक्रम। इस यात्रा में, साबरमती आश्रम ने चीन को शायद “अहिंसा ” शब्द की परिभाषा की, ब्यापक रूप से ब्याख्या कर इस के अर्थ से अवगत करा दिया है। क्यों की सुना जाता है, की चीन के शब्दकोष में इस प्रकार का कोई शब्द ही नहीं है।

दिल्ली में, 18 सितम्बर को, दोनों देश के नेतागण कूटनीतिक टेबल पर आमने – सामने हुए। अब बारी थी, सम्बन्धों पर चर्चा की। नरेंद्र मोदी जी ने, चर्चा की शुरूआत ही सीमा समस्याओं से ही की होगी। ऐसे में, गुजराती ढ़ोकले के बाद, चीन के मुँह का स्वाद बिगड़ जाना स्वाभाविक ही था। चीन और भारत की अदृश्य सीमा रेखा पर, सैनिकों का इधर उधर हो जाना बड़ा स्वाभाविक है, कभी हम इसे साधारण रूप में ले लेते है, और कभी स्थिति गंभीर हो चलती है। इन परिस्थितियों में चीन के पास भी इस पर कहने को, कुछ बहुत ज्यादा नहीं रहा होगा, सिर्फ यह अस्वासन देने के, कि शीघ्र ही प्राथमिकता पर इस समस्या का हल निकाल लिया जायेगा। किन्तु भारत के लिए, यह आश्वासन ही मात्र पर्याप्त नहीं रहा होगा। परिणामस्वरूप चर्चा ने कुछ रूखापन अख्तियार कर लिया होगा, जिसका प्रभाव, इस यात्रा के मुख्या उदेश्यों को भी प्रभावित कर गया।

भारत के बाजार में चीनी उद्पादो की भागीदारी, लगभग 90 % की है। इस कारण, हमारे उद्दोग लगभग बंद हो चुके है। परिणामस्वरूप, हमारी विकास दर भी प्रभावित हो गयी है, साथ ही हमारे देश में बेरोजगारी की समस्या भी बड़ी है। (निश्चित रूप से यह समस्या 120 दिनों में पैदा नहीं हुई है, और पिछली 10 वर्षो वाली सरकार मोदी के 120 दिनों की नाकामियों पर बुकलेट छपवा कर बटवा रही है।) चीन का निर्यात भारत को,बहुत ज्यादा है, हमारे चीन को निर्यात से। यह कारण हमारे लिए भारी आर्थिक घाटे का कारण बन गया है। उत्पादन लागत बड़ जाने के कारण एवं अन्य कारणों से चीन की विकास दर लगातार गिरती जा रही है। इन समस्याओं से निपटने के लिए, भारत का बाजार चीन के लिए एक संजीवनी का काम करता है। ऐसे में भारत की एक “न ” भी चीन को एक गंभीर स्थित में ला खड़ा कर सकती है।

चीन विस्तारवादी नीति का अनुयायी है। इस रणनीति के अंतर्गत, चीन तमाम अपने पड़ोसी देशों को आर्थिक सहायता दे कर, अपने अधिपत्य में ले लेना चाहता है। इस सन्दर्भ में उसने अभी तमाम देशों की यात्राऍ की, जिनमें लंका की यात्रा में उसने अपनी मंशा को कठोरता पूर्वक व्यक्त भी किया है। अपनी इसी नीति के अंतर्गत, वह भारत को भी अपने अधिपत्य में लेने की योजना बना रहा है।

भारत में नई सरकार के प्रधानमंत्री की तमाम देशों की यात्रा, मुख्या रूप से जापान की और शीघ्र ही अमेरिका की यात्रा, उस के चिंता का कारण बन रही है। चीन को अपनी महत्वकांछा में सेंध लगती दिख रही है। साथ ही, अपने प्रतिस्पर्धी देशों के एक, शशक्त मित्र देश के रूप में उसे भारत दिखने लगा है।

1962 के भारत चीन युद्ध के बाद से आज तक, चीन भारत को हमेशा से अपने प्रभाव में लेने के, तमाम प्रयास करता आ रहा है। चीन – पाकिस्तान को भारत के खिलाफ, सब से अधिक सहायता करता है। बार बार भारत के सीमा छेत्र एवं अरुणाचल प्रदेश को लेकर विवादित ब्यान देना, विवादित मानचित्र बना कर प्रचारित करना, आदि नीतियों से वह भारत को प्रभावित करता ही रहा है। गुजरात के औपचारिक स्वागत के बाद, 18 तारीख को दिल्ली की कूटनीतिक टेबल पर, मोदी जी ने स्पस्ट कर दिया, की हम अपनी परम्पराओं के अनुरूप,अपने विरोधी को भी संधि की इक्छा ब्यक्त करने पर, सर आँखों पर बैठाना जानते है, किन्तु मित्रता के लिए, उसे अपनी साफ नियति को, पहले हमारे भरोसे पर, खरा उतारना पड़ेगा। सीमा पर अतिक्रमण, व्ययसािक सम्बन्धों के लिए हमेशा ही बाधक रहेंगे।

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