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लाल किले से प्रधान मंत्री का जन संवाद।

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15 अगस्त 2014, हमारे 68 वें स्वतंत्रता दिवस के अवशर पर, हमारे प्रधानमंत्री, श्री नरेंद्र मोदी ने लालकिले से भारत के 125 करोड़ जनता से संवाद स्थापित किया। आज का यह संवाद केवल मोदी जी एवं भारत की समस्त जनता के बीच का रहा। इस 125 करोड़ में बहुसंख्यक भी है,अल्पसंख्यक भी है , किसान भी है, और जवान भी है,नक्सली भी हैं , माओवादी भी,महिलाये भी है और बच्चे भी। मोदी जी के संवाद में समाज में व्याप्त निरंकुशता से एवं संस्कार विहीनता से उपज रही सामाजिक कुरीतियों का दर्द था। महिलाओं के प्रति पुरूषों का बदलता क्रूर नजिरिया भी था। समाज में पूरी तरह जड़ जमा चुके भ्रस्टाचार का वातावरण भी था और ,राष्ट्रीय चरित्र के स्थान पर “हम ” के स्थान का दर्द भी था। इन कारणों पर हम नियम और कानून से अंकुश लगाने का प्रयास तो कर सकते है,पर इस का मूल समाप्तः कर सकना और वह भी किसी समय सीमा में शायद अत्यंत ही दुष्कर कार्य होगा।

मोदी जी के मन की पीड़ा ही कारण बनी, आज के स्वतंत्रता दिवस पर, जनता के साथ संवाद स्थापित करने की। मोदी जी जब देश के तमाम माता पिता से यह प्रश्न करते है, कि आप अपनी पुत्रियों की जितनी चिंता करते हैं, क्या उसी प्रकार की देख भाल पुत्रों की भी करते हैं ? लड़कियों के साथ होने वाले दुष्कर्मो की जिम्मेदारी भी तो इंन्ही लड़कों की ही होती है, जिंन्हे उन के माता पिता अच्छे संस्कार का पालन पोषण नहीं दे सके। यह प्रश्न मोदी जी ने देश की 125 करोड़ जनता के उन सभी माता पिता से किया है, चाहे वे किसी भी समुदाय के हों, किसी भी जाति के हों या फिर समाज के किसी भी वर्ग के हों। अब एक प्रश्न उठता है की ऐसी परम्पराओं को, ऐसे संस्कारों को समाज में कहॉ से प्रश्रय मिला, की आज हमारा सभ्य होता समाज जंगल राज्य में बदलता जा रहा है। इस माहौल को कौन सा कानून नियंत्रित कर सकता है। ? हमारे इन आचरणों पर नियंत्रण होता रहा है, हमारे नैतिक संस्कारो से ,धर्म अधर्म के ज्ञान से, विवेकशीलता से। आज हमारे समाज में एक ऐसे वातावरण का निर्माण हो गया है,जहां भौतिकवादिता के महत्व के आगे हमारे नैतिक जीवन के मूल्य झूठे हो गए है। आज हमारे समाज में कोई भी ऐसी संस्था नहीं जो इन जीवन मूल्यों के प्रति जागरूक हों, या इन जीवन मूल्यों की जिम्मेदारी ले सके। ऐसे में मोदी जी का प्रयास लोगों के सोये हुए जामीर को जगाने का प्रयास सराहनीय है। हम आशा करते है, की इस का प्रभाव जनमानस पर अवश्य कर पड़ेगा, बहुत नहीं तो, थोड़ा ही सही।

दूसरी चर्चा रही स्वक्चता अथवा सफाई की। यह समस्या भी एक राष्ट्रीय चरित्र का विषय है। हमारे संवेदनशीलता का प्रश्न है। सड़क और गलियों पर नित प्रातः झाड़ू लगता है,यह सफाई कितनी देर कायम रह पाती है? हम तुरंत ही गंदगी फैला देते है। हमारे स्वाभाव में ही नहीं यह सोच पाना की अभी – अभी सफाई हुई है, इसलिए कूड़े को कूड़े के स्थान पर ही फेकें। सफाई के प्रति लापरवाही हमारे स्वाभाव में है, फिर संसार की कोई भी व्यवस्था हमें स्वक्छ नहीं रख सकती। हम आज के युग में इतने नादान कैस हो सकते है, शायद यह दर्द भी मोदी जी को कहीं न कहीं सालता ही होगा।

लड़कियों की सिक्छा में विद्यालयों में शौचालयों का न होना एक नकारात्मक कारक रहा है।श्री मनमोहन सिंह जी ने भी अपने शासनकाल में इस समस्या का उल्लेख किया था, फिर तो कोई नई बात नहीं, जो मोदी ने कही हो। ऐसा आलोचकों का कहना है। किन्तु मोदी जी को एक कही हुई बात को, कियों कर दोबारा कहना पड़ा ? यह विचारणीय प्रश्न है।

कांग्रेस ने अपनी चुनाव में हार का विश्लेषण किया, तो पाया, की वह अपनी उपलब्धियों को जनता के समक्छ कुशलता पूर्वक प्रस्तुत नहीं कर सकी। उपलब्धियां तो स्वेम बोलती है, आप बोलें या न बोले। दूसरे राज्यों में जहां एक ही पार्टी की सत्ता 10 अथवा 15 वर्षो से चल रही है,वे किया अपने प्रोपोगंडा के आधार पर सत्ता में है ? मीम अफज़ल साहब को “हिन्दू “शब्द से भय लगता है। वे सेक्युलिरिज्म के पुजारी होने दावा पिछले 10 वर्षो के अपने शासन काल से करते आ रहे है। लेकिन दशकों से जम्मू कश्मीर से निष्काषित कश्मीरी ब्राह्मणों के पुनर्वास के लिए कौन सा और कितना हल अब तक निकला है,इस पर आज तक कुछ नहीं बोले। ये स्पस्ट करता है, की आप जनता से कभी भी जुड़ नहीं सके। आप जुड़ते है, तो मात्र अपने सत्ता स्वार्थ के लिए किसी भी विचार से, जिसमें जनता का हित गौड़ हो जाता है, इसे जनता भली प्रकार से अब समझने लगी है ,यही कारण रहा है, आप के अरेष से फर्श पर आने का। इतने पर भी आप को नरेंद्र मोदी की भाषा नहीं समझ आती, तो दोष निश्चित ही आप का नहीं, समय का ही है।

जब नरेंद्र जी अपने को “सेवक ” कहते है ,तो आलोचकों के लिए ये शब्द चुटकुला बन जाता है।गांधी जी के विचारों को भी समझने में हमें बहुत समय लग गया था। शक्ति और सामर्थ के नई मिसाल थे, गांधी जी के सिद्धांत। इब्रहिमलिंकन की लोकतंत्र की परिभाषा, यदि हम नहीं समझ सकते, तो आज के युग में हम किसी का भी भला नहीं कर सकते , न हीं अपना और न ही देश और समाज का। 60 – 62 वर्षो से हमने भाषणों को सत्ता का साधन बना रखा था,,अब संवाद का युग है ,जहां हमें सीधे जनता से जुड़ना है। जनता की “न ” और “हाँ ” ही हमारी नीतियों की, दिशा तै करेगी। संसद की सीढ़ियों को नमन करता चरित्र, आप के लिए क्या माने रखता है, यह आप ही जाने, पर जनता के लिए इस का क्या महत्व है,उसे जनता जान चुकी है।

मोदी सरकार के दो माह के कार्यो को हम” होनहार बिरवान के होत चिकने पात “के रूप में देखते है। सरकारी कार्यालयों में यदि समय सीमा का आदर होने लगा है, तो हम इसे क्या कहेंगे ?संसद का बजट सत्र कार्यकाल कैसा गया, इस की समीक्छा होनी चाहिए। यदि दावानल जंगल में फैला हो तो, जंगल की कुशलता की सिर्फ चिंता ही की जा सकती है। किन्तु चल रहे प्रयासों से इस अग्नि के प्रभाव के शांत होने तक तो हमें प्रतिक्छा करनी ही पड़ेगी यथा स्थित में आने की। और तभी योजनायें के प्रारूप एवं उनके परिणाम दृष्टिगत हो सकेंगे। विश्वास है, 15 अगस्त 2015 के संवाद में भारत की जनता के साथ संवाद में राष्ट्रीय स्वरुप की भी चर्चा होगी। 15 अगस्त 2016 ,के संवाद आप के प्रश्नों का स्वागत करेंगे।

समय छमा नहीं करता ,समय पक्छपात नहीं जनता,छल प्रपंच भविष्य में प्रभावहीन हो जाते है, कर्मो के आधार पर ही केवल समय का न्याय होता है। हमें समय के न्याय के लिए धैर्य का परिचय देना ही होगा।

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