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पिछले कुछ दिनों में लोकसभा चुनाव का माहौल एक नये रंग में दिखने लगा है। एक ऐसा रंग, जिस की कल्पना भी लोगों ने अब तक नहीं की होगी। जनता दंग रह गयी, सांसद प्रत्यासीयो की भाषा सुनकर। ये भाषा है – कल के सांसद सदस्यों की – जिन से भारत की सांसद बनेगी। ये भारत के भाग्य विधाता होंगे, 1.25 करोड़ भारत की जनता की जिम्मेदारी इन के हाथो में होगी। भारत वर्ष अपना भविष्य इन के हाथो में सौंपने जा रहा है। जनता अपनी और अपनी आने वाली पीढ़ी की सुरक्छा, खुशहाली की जिम्मेदारी इन्ही के हवाले करने के लिए इन्हें संसद में चुन कर भेजने जा रही है।
चुनावीय प्रत्यासीयो को, इन जिम्मेदारियों को सम्हाल सकने लायक, अपने को सिद्ध करने की चिंता नहीं है, उन्हें उच्च सदन के मान – मरियादा की चिंता नहीं है,विश्व के समछ अपनी और अपने देश की छवि की चिंता नहीं है,एक शिक्छित ,सभ्य समाज के मान – मरियादा की चिंता नहीं है, सभ्य समाज में, इनके व्यहार का क्या प्रभाव पड़ेगा, इस की चिंता नहीं, इनके बच्चों और परिवार पर उनके व्योहार का क्या प्रभाव पड़ेगा, इस की चिंता नहीं, कल इनके परिवार की प्रतिस्ठा, इस व्याहार से, कितनी आहत होगी, इस की चिंता नहीं। क्या हम एक असंवेदनशील,विवेकहीन प्रत्याशी को चुन कर संसद भेजने जा रहे है ?
हमे दुःख केवल इस प्रकार की अमरियादिदत व्याहार करने वाले शक्सीियतों की ही नहीं, वरन हम, तब ज्यादा अचंभित होते है, जब उस दल की ओऱ से, इस प्रकार के व्याहार पर कोइ छोभ प्रगट नहीं किया जाता है।आमतौर पर, इस दल के मुख्य पात्र, प्रायः इस प्रकार के व्याहार को तर्कसंगत सिद्ध करने का असफल प्रयास करने से नहीं चूकते।
कांग्रेस इस प्रकार के व्यहार के लिए वर्षो से जानी जाती रही है, अब स पा भी कांग्रेस से हर छेत्र में बराबरी के लिए कंधे से कन्धा मिला कर चलने लगी है/ स पा के एक कदवार नेता जी, जो उर्दू जबान के है, जहाँ पर तहजीब का एक खास मुकाम होता है, अपना आपा खो बैठते है और एक रास्ट्रीय स्तर की राजनैतिक पार्टी के प्रधान मंत्री उम्मीदवार के लिए ऐसे शब्दों का प्रयोग करते है, जिस की उम्मीद हम किसी अनपढ़ और जाहिल शख्स से भी नहीं कर सकते है। उन्हें अपने इस ब्यान पर फक्र भी होगा, और इस का इंतजार भी, कि कितनो ने उनकी जुबान अख्तियार की।
हमें क्या हो गया है? ये क्या हो रहा है ? ये सब किन बातों की प्रतिक्रियाए है ? ये किस प्रकार की राजनैतिक प्रतिसपर्धा है, जो हमें नंगा किये दे रही है। ये कैसा सेकुलरवाद है, जो वैचारिक मदभेदों में किसी की बोटी – बोटी काट देने को हमें उकसा रहा है, और इतना ही नहीं बल्की जनसमूह को भी, इस प्रतिक्रिया में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित करने की इजाजत दे रहा है। साथ ही सम्बंधित राजनैतिक पार्टी और उस के सम्भावित प्रधान मंत्री प्रत्यासी इस पर ‘ एसा नहीं बोलना चाहिए ‘ या ‘यह पुरानी बात है ‘ कह कर पल्ला झाड़ लेते है। इस प्रकार, इस प्रकरण पर उनकी मौन स्वीकृति कही न कहीं दिखती है। विराट कद के नेता जब किसी को “कुत्ते का बड़ा भाई ‘कहते है, तो संदेश स्पस्ट हो जाता है, कि वे अपना धैर्य खो चुके है, और उनके पास अब अपनी फूहड़ता के अलावा कोइ हतियार शेष नहीं है,लड़ने को।
देश के संसद सदस्यों की अपनी एक गरिमा होती है, वे देश में आदर्श होते है/ विश्व में इन्ही से देश की प्रतिस्ठा होती है/ हम देश में लोकतान्त्रिक व्यवस्था के अंतर्गत चुनाव में विजयी होने के लिए अपने सिधान्तो के आधार पर जनता से अपने लिए स्वीकृति चाहते है। लोकतंत्र में सभी को समान अधिकार होते है, एवं सभी भारत के सम्मानित नागरिक होते है – बिना किसी भेद भाव के। लोकतंत्र कहता है, कि हमें सभी की भावनाओं का आदर करना चाहिए। इस प्रकार लोकसभा का चुनाव सम्वैधानिक विचारों की स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा न रहकर एक छुद्र युद्ध का रूप धारण कर गयी है, जिस में विजयी होने के लिए हम देश, समाज किसी की भी आहुति देने में संकोच नहीं कर रहे है। ऐसे लोगों के चरित्र को जनता को आज ही पहचानना होगा, ता कि हम अपने आने वाले कल को सुरक्छित कर सकें।
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