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राजनीति की कठपुतली – जनता

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आज देश की राजनीति का मुख्य उद्देश्य सत्ता प्राप्ति ही होता जा रहा है, और उस के लिए हम कोइ भी कीमत अदा करने को तैयार हो जाते है। आज राजनीति निष्ठुर हो गयी है, देश के प्रति और समाज के प्रति। अपनी इक्छा पूर्ती के उद्देश से किये गए तमाम क्रिया कलापों के भविष्य से बेखबर हो गए है हम।
सब्सिडी के एक साल में मिलने वाले 6 गैस सिलेंडरो की घोषणा के विरोध में जनता के 12 सिलेंडरो की मांग करने पर, सरकार ने 9 पर सौदा तै कर दिया। 3 अधिक सिलेंडरो को देने से जो घाटा सरकार को होने वाला था, उस की “कराह “को जनता ने भली प्रकार महसूस किया। किन्तु समय विशेष पर, तथा व्यक्ति विशेष की चाहत पर, 12 सिलेंडरो की मांग पूरी हो ही गयी। यह लोकतान्त्रिक पद्धति से लिया गया निर्णय था या फिर “शहजादे ” की इक्छा। इन के “हाँ ” कहने और “ना ” कहने के पीछे कोइ सार्थक तथ्या होता है, या फिर यह केवल इन की कृपा मात्र ही होती है।
संसद के सत्र के सत्र बर्बाद होते रहे ,समय और पैसा बर्बाद होता रहा, क्यों ? फिर समय आया और तमाम बिल जैसे खाद्य सुरक्छा ,दागी मंत्रीओं पर रोक,लोकपाल विधयक आदि- आदि बिना किसी रूकावट के पास होते चले गए।
तमाम राजनैतिक पार्टीयो ने अपने को आर.टी.आई.से मुक्त करा लिया। अब कौन से सवाल, और कैसे जवाब। सभी सवालों से मुक्ति, निरदुन्द – स्वछन्द रूप से देश, राज्य पर शाशन करने का अधिकार सुरक्छित हो गया/
राष्ट्रपति महोदय ने राष्ट्र के नाम सन्देश में “खैरात ” का उल्लेख किया, उन्होंने “मिथिया घोषणाओ ” का भी जिक्र किया, और इनके के परिणाम “आक्रोष ” का भी उल्लेख किया, इस के अलावा सत्ता दल को “चेतावनी ” भी दी। जिन विषयों का जिक्र रास्ट्रपति महोदय ने किया, इस प्रकार की मनोवृतिओं से देश समाज को कौन सी दिशा दी जा रही है, और हम देश समाज को कहाँ ले जा रहे है, समझ पाना कठिन होता जा रहा है।
देश की जनता को जाति ,संप्रदाय ,ऊच -नीच ,अगड़ी -पिछड़ी ,छेत्र आदि या फिर और भी विभिन्न आधारों द्वारा बंट जाने से समाज की समरसता हमेशा – हमेशा के लिए नीरस हो गयी। एक विभाजन शिक्छा को लेकर और दिखने लगा है। “सरकारी शिक्छा प्रणाली” व “असरकारी शिक्छा प्रणाली”। सरकारी शिक्छा – जहाँ अध्यापक वा प्रधानाचार्य के बिना शिक्छा ले कर निकली जमात है, जिसे प्राइवेट कालेजों से, भरी ख़र्चे की शिक्छा ले कर निकली जमात की रियाया के रूप में विवश होना होगा निम्न श्रेणी में जीने को। इस विसंगति को दूर करने के लिए क्या सरकारी विद्यालय के छात्रो को “असरकारी छात्रों ” के समक्छ लाने के लिए, क्या सरकारी नौकरीयों में आरक्छन का प्रावधान किया जाएगा ?
अधिकाँश राजनैतिक पार्टीयां परिवारवाद पर चल रही है, जँहा पर उस परिवार की आकँचाये ही पार्टी का विधि और विधान होती है। फिर भी मंच पर ये अपने लोकतंत्र का शंखनाद करते है। सर से पैर तक भ्रस्टाचार में डूबी सरकार, अपने को भ्रस्टाचार के खिलाफ के जंग का, महायोद्धा सिद्ध करने में लगी है। कुछ लोग अपने दल के अलावा बाकी सभी दलो को “अलोकतांत्रिक” कह रहे है।
जनता को भ्रमित करने के तमाम प्रयास चलरहे है,ता की किम्कर्तब्यविमूढ़ हो जनता, जो जैसा चल रहा है, स्वीकार कर ले (को नृप हो हमें का हानि ), और राजनैतिक मठाधीशों को अपनी मनमानी जनता की गाढ़ी कमाई पर करते रहने दे।
सरकार को जनता के प्रति जवाबदेह होना ही चाहिए ,केवल पाँच वर्षो में एक बार नहीं,अपितु पाँच वर्षो में कभी भी/ योजनाओं का मुल्यांकन होना ही चाहिए,यदि योजना का लाभ अंतिम ब्यक्ति तक नहीं पहुचता तो सरकार को उस का उत्तरदायी होना ही चाहिए, साथ ही अपनी असफलता का दंड भोगना ही चाहिए। लोकतंत्र का सही मापदंड इसी प्रकिया में है ,शेष सब छल – कपट की श्रेणी में ही आता है।

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